छोटेबड़े 70-80 तालाब हैं यहां नीरज ठाकुर की स्कूलिंग नेतरहाट से हुई है. उन्होंने आईआईटी, मुंबई से आगे की पढ़ाई की और ओएनजीसी जैसी प्रतिष्ठित संस्था के लिए तकरीबन 33 सालों तक देश और दुनिया के अलगअलग हिस्सों में काम किया है.
रिटायर होने के बाद नीरज ठाकुर ने गांव में बसने का फैसला किया और पिछले कुछ समय से मखाने की खेती कर रहे हैं. उन्होंने तकरीबन साढ़े 3 एकड़ के प्लाट में मखाने की 3 वैरायटी लगा रखी हैं. बातचीत के दौरान हमें पता चला कि परंपरागत तौर पर मखाने की खेती तालाबों में होती आई है. तालाब में मखाना उत्पादन करना बेहद किफायती रहा है.
अमूमन हर साल मखाना तैयार होने के बाद जब उसे जमीन के अंदर से निकाला जाता है, तब उस के बहुत से फल अंदर ही रह जाते हैं, जो अगले साल के लिए बीज के काम आते हैं. किसान अलग से कुछ खाद और उर्वरक का भी इस्तेमाल नहीं करते. बीज और उर्वरक की बचत के चलते यह खेती कम खर्चीली है.
नीरज ठाकुर मखाने की खेती अपने खेतों में करते हैं. इस के कुछ अपने फायदे हैं, तालाब की अपेक्षा खेतों से मखाना निकालना आसान होता है. कंट्रोल इरिगेशन सिस्टम होने के कारण खेतों में लगाए गए पौधे की बढ़ोतरी बेहतर होती है. इस वजह से उत्पादन में भी वृद्धि होती है. तालाब में होने वाले मखाने का साइज साल दर साल छोटा होता जाता है, वहीं खेतों से निकले मखाने बड़े साइज के होते हैं.
नीरज ठाकुर का मानना है कि किसान अगर थोड़ा सा इन्वैस्टमैंट कर के तालाब की जगह अपने खेतों में मखाने का उत्पादन करें, तो उन्हें फायदा ज्यादा होगा.
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कचरे के पहाड़ों पर खेती कमाई की तकनीक
वर्तमान में कचरा एक गंभीर वैश्विक समस्या बन कर उभरा है. भारत की बात करें, तो साल 2023 में पर्यावरण की स्थिति पर जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक, देश में प्रतिदिन तकरीबन डेढ़ करोड़ टन ठोस कचरा पैदा हो रहा है, जिस में से केवल एकतिहाई से भी कम कचरे का ठीक से निष्पादन हो पाता है. बचे कचरे को खुली जगहों पर ढेर लगाते हैं, जिसे कचरे की लैंडफिलिंग कहते हैं.
सर्दी की फसल शलजम
कम समय में तैयार होने वाली फसल शलजम है. इसे खास देखभाल की जरूरत नहीं होती है और किसान को क मुनाफा भी ज्यादा मिलता है. शलजम जड़ वाली हरी फसल है. इसे ठंडे मौसम में हरी सब्जी के रूप उगाया व इस्तेमाल किया जाता है. शलजम का बड़ा साइज होने पर इस का अचार भी बनाया जाता है.
राममूर्ति मिश्र : वकालत का पेशा छोड़ जैविक खेती से तरक्की करता किसान
हाल के सालों में किसानों ने अंधाधुंध रासायनिक खादों और कीटनाशकों का प्रयोग कर धरती का खूब दोहन किया है. जमीन से अत्यधिक उत्पादन लेने की होड़ के चलते खेतों की उत्पादन कूवत लगातार घट रही है, क्योंकि रसायनों के अंधाधुंध प्रयोग के चलते मिट्टी में कार्बांश की मात्र बेहद कम हो गई है, वहीं सेहत के नजरिए से भी रासायनिक उर्वरकों से पैदा किए जाने वाले अनाज और फलसब्जियां नुकसानदेह साबित हो रहे हैं.
करें पपीते की वैज्ञानिक खेती
पपीता एक महत्त्वपूर्ण फल है. हमारे देश में इस का उत्पादन पूरे साल किया जा सकता है. पपीते की खेती के लिए मुख्य रूप से जाना जाने वाला प्रदेश झारखंड है. यहां उचित जलवायु मिलने के कारण पपीते की अनेक किस्में तैयार की गई हैं.
दिसंबर महीने के जरुरी काम
आमतौर पर किसान नवंबर महीने में ही गेहूं की बोआई का काम खत्म कर देते हैं, मगर किसी वजह से गेहूं की बोआई न हो पाई हो, तो उसे दिसंबर महीने के दूसरे हफ्ते तक जरूर निबटा दें.
चने की खेती और उपज बढाने के तरीके
भारत में बड़े पैमाने पर चने की खेती होती है. चना दलहनी फसल है. यह फसल प्रोटीन, फाइबर और विभिन्न विटामिनों के साथसाथ मिनरलों का स्त्रोत होती है, जो इसे एक पौष्टिक आहार बनाती है.
रोटावेटर से जुताई
आजकल खेती में नएनए यंत्र आ रहे हैं. रोटावेटर ट्रैक्टर से चलने वाला जुताई का एक खास यंत्र है, जो दूसरे यंत्रों की 4-5 जुताई के बराबर अपनी एक ही जुताई से खेत को भुरभरा बना कर खेती योग्य बना देता है.
आलू खुदाई करने वाला खालसा पोटैटो डिगर
खालसा डिगर आवश्यक जनशक्ति और समय बचाता है. इस डिगर को जड़ वाली फसलों की खुदाई के लिए डिजाइन किया गया है. इस का गियर बौक्स में गुणवत्तापूर्ण पुरजों का इस्तेमाल किया गया है, जो लंबे समय तक साथ देने का वादा करते हैं.
कृषि एवं कौशल विकास से ही आत्मनिर्भर भारत बन सकेगा
बातचीत : गौतम टेंटवाल, कौशल विकास एवं रोजगार मंत्री, मध्य प्रदेश
गेहूं में खरपतवार नियंत्रण के प्रभावी उपाय
खरपतवार ऐसे पौधों को कहते हैं, जो बिना बोआई के ही खेतों में उग आते हैं और बोई गई फसलों को कई तरह से नुकसान पहुंचाते हैं. मुख्यतः खरपतवार फसलीय पौधों से पोषक तत्त्व, नमी, स्थान यानी जगह और रोशनी के लिए होड़ करते हैं. इस से फसल के उत्पादन में कमी होती है.