मटर का उकठा
मटर के पौधे में लगभग एक ही प्रकार के 2 उकठा रोगों का प्रकोप होता है. पहले प्रकार के उकठा को 'रूट विल्ट' नाम से जाना जाता है, जो फ्यूजेरियम औक्सीस्पोरम फा. स्प. पाइसाइ रेस-1 नामक कवक द्वारा उत्पन्न किया जाता है. वहीं दूसरे प्रकार के उकठा को 'नियर विल्ट' के नाम से जाना जाता है, जो इसी कवक के रेस-2 से 11 तक द्वारा उत्पन्न किया जाता है.
रूट विल्ट
लक्षण : रोगकारक कवक फसल को वृद्धिकाल की किसी भी अवस्था में ग्रसित कर सकता है. ग्रसित पौधों की वृद्धि का रुक जाना, पौधों की निचली पत्तियों का नीला पड़ जाना, नई पत्तियों के किनारे ऊपर और नीचे की ओर मुड़ जाना, भूमि सतह के पास तने का हलका मोटा एवं भंगुर हो जाना आदि शुरुआती लक्षण पाए जाते हैं. प्रभावित पौधों की फीडर रूट के नष्ट हो जाने के कारण पौधे धीरेधीरे मरने लगते हैं. अकसर यह देखा गया है कि नम मिट्टियों की अपेक्षा अत्यंत सूखी मिट्टियों में ये जल्दी मरते हैं.
यदि पौधा वृद्धि की अवस्था में शीघ्र रोग से ग्रसित हो जाता है, तो बिना फली उत्पादन के ही मर जाता है. रोग का आक्रमण यदि फसल की बाद की अवस्था में होता है, तो पौधा बिना दाने की चपटी व टेढ़ीमेढ़ी फलियां उत्पादित करता है. रोगग्रस्त खेतों में यह रोग गोलगोल चकत्तों में दिखाई देता है.
नियर विल्ट
लक्षण : रूट विल्ट की तरह ही पौधा वृद्धिकाल की किसी भी अवस्था में रोग से ग्रसित हो सकता है. रोग के शुरुआती लक्षण जैसे रोगी पौधों का जमाव तो होता है, पर जमाव होते ही पौधों का मरना एवं कमरतोड़ हो जाना आदि लक्षण पाए जाते हैं.
यदि रोग का आक्रमण पौधों पर बाद की अवस्था में होता है, तो बीजपत्र जुड़े होने वाले स्थान के पास काले रंग का विकास हो जाता है, जिस से जड़ के बाहरी भागों को हानि पहुंचती है. रोग के अन्य लक्षण रूट विल्ट की भांति होते हैं, लेकिन नियर विल्ट से ग्रसित पौधे अपेक्षाकृत धीरेधीरे मरते हैं.
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कचरे के पहाड़ों पर खेती कमाई की तकनीक
वर्तमान में कचरा एक गंभीर वैश्विक समस्या बन कर उभरा है. भारत की बात करें, तो साल 2023 में पर्यावरण की स्थिति पर जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक, देश में प्रतिदिन तकरीबन डेढ़ करोड़ टन ठोस कचरा पैदा हो रहा है, जिस में से केवल एकतिहाई से भी कम कचरे का ठीक से निष्पादन हो पाता है. बचे कचरे को खुली जगहों पर ढेर लगाते हैं, जिसे कचरे की लैंडफिलिंग कहते हैं.
सर्दी की फसल शलजम
कम समय में तैयार होने वाली फसल शलजम है. इसे खास देखभाल की जरूरत नहीं होती है और किसान को क मुनाफा भी ज्यादा मिलता है. शलजम जड़ वाली हरी फसल है. इसे ठंडे मौसम में हरी सब्जी के रूप उगाया व इस्तेमाल किया जाता है. शलजम का बड़ा साइज होने पर इस का अचार भी बनाया जाता है.
राममूर्ति मिश्र : वकालत का पेशा छोड़ जैविक खेती से तरक्की करता किसान
हाल के सालों में किसानों ने अंधाधुंध रासायनिक खादों और कीटनाशकों का प्रयोग कर धरती का खूब दोहन किया है. जमीन से अत्यधिक उत्पादन लेने की होड़ के चलते खेतों की उत्पादन कूवत लगातार घट रही है, क्योंकि रसायनों के अंधाधुंध प्रयोग के चलते मिट्टी में कार्बांश की मात्र बेहद कम हो गई है, वहीं सेहत के नजरिए से भी रासायनिक उर्वरकों से पैदा किए जाने वाले अनाज और फलसब्जियां नुकसानदेह साबित हो रहे हैं.
करें पपीते की वैज्ञानिक खेती
पपीता एक महत्त्वपूर्ण फल है. हमारे देश में इस का उत्पादन पूरे साल किया जा सकता है. पपीते की खेती के लिए मुख्य रूप से जाना जाने वाला प्रदेश झारखंड है. यहां उचित जलवायु मिलने के कारण पपीते की अनेक किस्में तैयार की गई हैं.
दिसंबर महीने के जरुरी काम
आमतौर पर किसान नवंबर महीने में ही गेहूं की बोआई का काम खत्म कर देते हैं, मगर किसी वजह से गेहूं की बोआई न हो पाई हो, तो उसे दिसंबर महीने के दूसरे हफ्ते तक जरूर निबटा दें.
चने की खेती और उपज बढाने के तरीके
भारत में बड़े पैमाने पर चने की खेती होती है. चना दलहनी फसल है. यह फसल प्रोटीन, फाइबर और विभिन्न विटामिनों के साथसाथ मिनरलों का स्त्रोत होती है, जो इसे एक पौष्टिक आहार बनाती है.
रोटावेटर से जुताई
आजकल खेती में नएनए यंत्र आ रहे हैं. रोटावेटर ट्रैक्टर से चलने वाला जुताई का एक खास यंत्र है, जो दूसरे यंत्रों की 4-5 जुताई के बराबर अपनी एक ही जुताई से खेत को भुरभरा बना कर खेती योग्य बना देता है.
आलू खुदाई करने वाला खालसा पोटैटो डिगर
खालसा डिगर आवश्यक जनशक्ति और समय बचाता है. इस डिगर को जड़ वाली फसलों की खुदाई के लिए डिजाइन किया गया है. इस का गियर बौक्स में गुणवत्तापूर्ण पुरजों का इस्तेमाल किया गया है, जो लंबे समय तक साथ देने का वादा करते हैं.
कृषि एवं कौशल विकास से ही आत्मनिर्भर भारत बन सकेगा
बातचीत : गौतम टेंटवाल, कौशल विकास एवं रोजगार मंत्री, मध्य प्रदेश
गेहूं में खरपतवार नियंत्रण के प्रभावी उपाय
खरपतवार ऐसे पौधों को कहते हैं, जो बिना बोआई के ही खेतों में उग आते हैं और बोई गई फसलों को कई तरह से नुकसान पहुंचाते हैं. मुख्यतः खरपतवार फसलीय पौधों से पोषक तत्त्व, नमी, स्थान यानी जगह और रोशनी के लिए होड़ करते हैं. इस से फसल के उत्पादन में कमी होती है.