संजय चौहान चले गए. वे अपनी ही जिंदगी की स्क्रिप्ट की ऐसी एंडिंग लिख जाएंगे, यह तो लीक से हटकर लिखने वाला उनके जैसा कोई स्क्रिप्ट ही कर सकता है. उन्हें जानने वाले इस अप्रत्याशित खबर से हैरान हैं. लेकिन वे होते तो कहते, 'यह चले गए क्या होता है? तुम तो ऐसा कह रहे हो जैसे संजय कोई पहले आदमी हैं जो चले गए या किसी का कुछ लेकर चले गए. भाई, पता कर लो. किसी का कुछ लेकर नहीं गया हूं.' इसके साथ ही वे जोर का ठहाका लगाते और पूरा माहौल ठहाकों से भर जाता. ऐसा था उनका बेरहम सेंस ऑफ ह्यूमर.
नब्बे के दशक में इंडिया टुडे हिंदी के संपादकीय विभाग में हमने वर्षों तक साथ काम किया. मेरे साथ उनकी कुछ ज्यादा ही ट्यूनिंग थी. उन दिनों के हमारे एक अन्य सहकर्मी और अभी बीबीसी हिंदी के डिजिटल एडिटर राजेश प्रियदर्शी मजाक में कहा करते थे कि संजय भाई के आते ही आप मानो रैकेट लेकर खड़े हो जाते हैं, ऐसे जैसे कि अब बैडमिंटन के दो खिलाड़ियों के बीच दिलचस्प मुकाबला होने जा रहा है. संजय का सेंस ऑफ ह्यूमर गजब का था और मन शीशे की तरह साफ. काम का कितना भी दबाव हो, वे बीच-बीच में हंसी की फुहारें छोड़ते रहते थे.
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