प्र. क्या भारत को एक समान नागरिक संहिता की जरूरत है? अगर है, तो क्यों?
पिंकी आनंद: यह सही दिशा में बहुत समय से टलता आ रहा कदम है. समान नागरिक संहिता सभी लोगों के बुनियादी अधिकारों की रक्षा करने वाले मजबूत कानूनी ढांचे के साथ धार्मिक और सांस्कृतिक विविधता के संरक्षण का संतुलन बिठाने के लिए बेहद अहम और जरूरी है. यूसीसी सभी नागरिकों को समान अधिकार और कानूनी उपाय देते हुए समग्र रूप से जुड़े हुए समाज के ऊपर कानून का शासन लागू करने को सुगम और आसान बनाएगी. अपने मूल में यह मानवीय गरिमा, कानून-सम्मतता और व्यक्तियों के स्वायत्तता के अधिकार से प्रेरित है. समाज की एकजुटता इस पर निर्भर करती है कि कानून के शासन की कल्पना कैसे की जाती है और उसके लक्ष्य कैसे हासिल किए जाते हैं: यह निर्देशात्मक जरूरत है. वह पदानुक्रम जो विधिक कानून के ऊपर धार्मिक कानून और रीति-रिवाजों को तरजीह देता है, वह भारत में न्याय के प्रसार को बुनियादी तौर पर अलोकतांत्रिक बना देता है. पर्सनल लॉ औपनिवेशिक फरमानों को बनाए रखते हैं और नागरिकों व खासकर महिलाओं के पास अपने स्वाभाविक अधिकारों का उल्लंघन करने वाले कृत्यों के उपाय का कोई साधन नहीं छोड़ते. पर्सनल लॉ में कट्टर मतों पर आधारित प्रावधान, जो महिलाओं के मौलिक अधिकारों का हनन करते हैं, पितृसत्तात्मक और धार्मिक उत्पीड़न के दुष्चक्र को संरक्षित करते हैं. यह हमारे संविधान की नैतिकता के विपरीत है. महिलाओं के अधिकारों को खतरे में डालने वाली बहुविवाह और असमान विरासत सरीखी प्रथाओं को जड़ से उखाड़ फेंकने की जरूरत सर्वोपरि है. कानून का सामंजस्य ऐसी जरूरत है जिसकी प्रेरणा निर्देशात्मक सिद्धांतों से मिलती है और जिसके लिए सुप्रीम कोर्ट ने भी हमें जी-जान से कोशिश करने की नसीहतें दी हैं और यही कानूनों का सामंजस्य महिलाओं और हाशिए के समुदायों के साथ गरिमापूर्ण बर्ताव की व्यवस्था का बड़े पैमाने पर प्रसार करेगा.
This story is from the August 16, 2023 edition of India Today Hindi.
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