अतीत पर नजर डालें तो कह सकते हैं कि राम जन्मभूमि मंदिर भारतीय समाज की आंतरिक दृढ़ता और सभ्यतागत पुनरुत्थान का प्रतीक है. पिछले कुछ दशकों से हम इसके गवाह रहे हैं. यह भगवान राम की एक बार फिर घर वापसी जैसा है, जो कि रामायण में उनके वनवास के बाद अयोध्या वापसी के समान है. मंदिर एक तरह से अपने पुरखों के प्रति हमारी प्रतिबद्धता और अगली पीढ़ियों से वादे का प्रतीक है. यह वादा कि हमारी संस्कृति कायम रहेगी, न सिर्फ कायम रहेगी बल्कि फलेगी-फूलेगी. भविष्य की दृष्टि से देखें तो मंदिर एक संकल्प का प्रतीक होगा. एक ऐसे संकल्प का कि फिर से राम राज्य की स्थापना की दिशा में बढ़ते राष्ट्र में आखिर हम किन ऊंचाइयों तक जा सकते हैं. हमें नए राम राज्य के निर्माण के लिए सकारात्मक ऊर्जा का उपयोग करना चाहिए, जहां धर्म और सत्य सर्वोपरि हो. मैं भगवान राम पर राजनीति के बजाय राम की राजनीति देखना चाहता हूं.
नए राम मंदिर को राजनैतिक औजार में तब्दील करने के लिए इस वक्त तमाम उपाय किए जा रहे हैं. मानो यह भाजपा राज के लिए नए नजरिए और मिशन का प्रतीक हो. धर्मशास्त्रीय और टेक्नोक्रेटिक दोनों नजरिए से इस पर कवायद चल रही है. लेकिन तमाम तरह के लोकराग और सुनियोजित विज्ञापनों के बावजूद नया राम मंदिर अपनी पूरी मिथकीय ऊर्जा को नहीं जगा पाया है. भाजपा ने इसे ऐतिहासिक बदलाव बताने की भूल कर मिथक पर चोट की है और इस तरह उसने सामाजिकता के पहलू को भी नुक्सान पहुंचाया है. उसका पहला प्रहसन तो कामयाब होगा लेकिन लंबे समय में यह बेमानी हो जाएगा. इसे नई तरह का पुनरुत्थान कहना इतिहास में नहीं बल्कि विज्ञापन में फिट बैठता है. यह कोई भक्ति आंदोलन नहीं, यह धर्म के सुविधाजनक तरीके से इस्तेमाल की कोशिश है. धर्म की समन्वयकारी, संवाद बनाने की शक्ति खो गई है. मौजूदा किस्से में नैरेटिव वाली नजाकत और लचीलेपन का अभाव है. यह हुक्मनामे और फरमान की तरह ज्यादा लगता है.
This story is from the February 07, 2024 edition of India Today Hindi.
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