राहुल गांधी इन दिनों जनसभाओं के मंच पर एक छोटी-सी, पतलीसी लाल किताब लहराते हैं. यह भारत का संविधान है, ईस्टर्न बुक कंपनी का कोट पॉकेट संस्करण, जो युवा वकीलों में खासा लोकप्रिय है. कांग्रेस नेता किताब हाथ में उठाकर संविधान की रक्षा की कसम खाते हैं. वे लोकसभा चुनाव के 4 जून को नतीजों के ठीक 15 दिन बाद 54 साल के होंगे. उनके अंदाज में दिवंगत कांशीराम और ऑक्युपाइ मूवमेंट (सामाजिक-आर्थिक गैर-बराबरी के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय आंदोलन, जिसकी धाक अमेरिका सहित कई यूरोपीय तथा अन्य देशों में सुनी गई थी) के तेवर का गजब मिश्रण है. इन दो धाराओं का मेल सिर्फ पहली नजर में ही असंभव सा लगता है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी आजकल आवाज में गंभीरता और नाटकीयता के अपने अनोखे पुट के साथ अपनी दलील पेश कर रहे हैं. जैसे, उन्होंने 17 मई को इंडिया टुडे से बातचीत में कहा, "मैं अपनी जान देकर भी संविधान की रक्षा करूंगा." तो, कांटे के मुकाबले वाले 'चुनाव के दौरान वजूद की लड़ाई में उलझे दो विरोधी पक्ष एक ही बात का वादा क्यों कर रहे हैं? दरअसल, इसका संबंध उस किताब में निहित खास बात से है और उसके रचयिता बी. आर. आंबेडकर के जीवन की विचार-यात्रा से भी है-जो सकारात्मक कार्रवाई या आरक्षण के जरिए जाति का नया राजनीतिकरण करने से जुड़ा है.
'जाति' और उसका लंबा साया आरक्षण अमूमन कुछ असहज से सार्वजनिक मंच पर प्रकट होते हैं. 2024 का आम चुनाव इस मायने में तीसरा बड़ा अपवाद साबित होने जा रहा है. आंबेडकर के बाद मंडल आयोग के दौर ने दूसरी बार पुरानी व्यवस्था में उथल-पुथल मचा दिया था. शायद मौजूदा दौर भी उसी पैमाने बड़े बदलाव का प्रतीक है. देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस आज देशव्यापी जाति जनगणना के वादे के अपने मुख्य एजेंडे के साथ है, ताकि जरूरतमंदों को आबादी के आधार पर आरक्षण मुहैया कराया जा सके. वह दो मंडल समर्थक दलोंसमाजवादी पार्टी (सपा) और राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के साथ खड़ी है, जो नौकरियों और शिक्षा संस्थानों में आरक्षण पर 50 फीसद की अदालती सीमा को खत्म करने का वादा कर रहे हैं.
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