भाजपा की इतनी बड़ी जीत के पीछे क्या कोई अंडरकरंट था जो अधिकांश आंखों को धोखा दे गया? अगर था तो वह क्या था? ऐसे कई सवाल हैं, जो नतीजों के बाद हैरान कर रहे हैं। शायद कुछ अंदाजा 2018 के विधानसभा चुनाव के नतीजों से मिल सकता है। उस साल प्रदेश के मतदाताओं ने 15 वर्ष के लंबे अंतराल के बाद कांग्रेस पर एक बार फिर से ऐतबार जताया था और उसकी झोली में ठीकठाक सीटें डालकर सत्ता सौंप दी थी, लेकिन 15 महीने बाद अंदरूनी वजहों और तथाकथित ऑपरेशन कमल से कांग्रेस सत्ता से बेदखल हो गई और लोगों के ऐतबार को गहरा सदमा पंहुचा। सत्ता में शिवराज सिंह चौहान सरकार की एक बार फिर से वापसी हो गई।
समय बीता और फिर विधानसभा चुनाव आ गया। इस बीच प्रदेश में ऐसा कोई बड़ा बदलाव नहीं हुआ जिसका असर भाजपा और कांग्रेस की छवि को नुकसान पहुंचाता। मैदान साफ था, जिसके चलते दोनों पार्टियां तैयारी के साथ चुनावी अखाड़े में जा पहुंचीं। दोनों ही पार्टियां पहले दिन से आश्वस्त थीं कि जीत का सेहरा उनके माथे बंधना तय है। लिहाजा दोनों ने जीत की उम्मीद अपने-अपने उम्मीदवारों पर छोड़ दी।
भाजपा इस छोटी पर महत्वपूर्ण बात को समझने में कामयाब रही। शायद यही वजह थी कि चुनाव तारीखों की घोषणा के लगभग तीन महीने पहले ही भाजपा ने प्रदेश के सभी कद्दावर नेताओं की उम्मीदवारी की घोषणा कर दी- केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर, प्रहलाद पटेल और फग्गन सिंह कुलस्ते सहित सात सांसद और राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय को मैदान में उतारा गया। पार्टी ने अपना फोकस स्पष्ट रखा कि उसे कैसे हारी हुई सीटों को हर हाल में जीतना है। वैसे भी भाजपा ने प्रदेश के कद्दावर नेताओं पर जिन आठ सीटों पर अपना दांव खेला उनमें से छह सीटें हारी हुई थीं।
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