यह 'कुछ न कुछ किया कर पजामा फाड़ कर सिया कर' वाली कहावत जैसा फरमान था जिस से सवाल उठता है कि क्या उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने एक तीर से दो निशाने साधने की कोशिश की थी. पहली जगजाहिर है कि खासतौर से मुसलमान दुकानदारों के लिए परेशानी खड़ी कर बचेखुचे सवर्ण वोटों को खुश करना और दूसरी नरेंद्र मोदी के लिए धर्मसंकट पैदा करना ? उस वक्त राजनीति गरमा उठी जब उत्तर प्रदेश सरकार ने यह आदेश जारी किया था कि 270 किलोमीटर लंबे कांवड़ रूट के सभी दुकानदार अपने नाम और पहचान की तख्तियां लगाएं.
इस के पीछे छिपा मैसेज यह था कि जाने अनजाने में कांवड़िए मुसलमानों की दुकानों पर खापी लेते हैं जिस से उन का धर्म भ्रष्ट हो जाता है. यह और बात है कि हिंदू धर्मग्रंथों में शूद्रों को भी अछूत बताया गया है और उन से दूर रहने की हिदायत दी गई है. दुकानदारों में बहुत से शूद्र और पिछड़े और दलित यानी एससी भी होते हैं.
योगी आदित्यनाथ क्या नरेंद्र मोदी को धर्मसंकट में डालना चाहते थे और क्या सब से बड़ी अदालत से मोदी को राहत मिली, इसे कोर्टरूम में हुई बहस से भी समझा जा सकता है. इस में याचिकाकर्ता के वकील अभिषेक मनु सिंघवी सुप्रीम कोर्ट को इस बात पर सहमत करने में सफल हुए कि दरअसल मामला शुद्धता की आड़ में मुसलमानों के आर्थिक बहिष्कार का है जिस के लपेटे में दलित भी आ रहे हैं क्योंकि शाकाहारी होटलों में वे भी काम करते हैं.
एक और दिलचस्प बात यह भी रही कि सरकार की तरफ से कोई वकील हाजिर ही नहीं हुआ, वरना ऐसे मामलों में सौलिसिटर जनरल तुषार मेहता दौड़ते भागते हुए आते हैं और सरकारी पक्ष कोर्ट में पेश करते हुए मामले को खारिज करवाने की बहस करने लगते हैं.
यह शायद पहला मामला है जिस में सौलिसिटर जनरल तुषार मेहता या एडिशनल सौलिसिटर जनरल बांसुरी स्वराज कोर्ट में आए ही नहीं. अब देखना यह भी दिलचस्प होगा कि अगली सुनवाई में भी कोई पेश होगा या नहीं.
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