जैसे-जैसे टैक्नोलौजी जिंदगी का अनिवार्य हिस्सा बनती जा रही है वैसेवैसे कई सहूलियतों के साथसाथ अनिश्चितताएं भी बढ़ती जा रही हैं. किसी को भी यह अंदाजा नहीं है कि आने वाला वक्त कैसा होगा. दुनिया इतनी तेजी से बदल रही है कि लोग, खासतौर से युवा, भविष्य तो क्या वर्तमान को भी ठीक से नहीं देख व समझ पा रहे हैं. हालांकि कुछ भी समझने के लिए युवा अब किसी पर निर्भर नहीं रह गए हैं, पिता पर तो न के बराबर, इसलिए नहीं कि पिता पर उन्हें भरोसा नहीं बल्कि इसलिए कि उन्हें यह लगता है कि अपनी एजुकेशन और कैरियर के बारे में वे खुद बेहतर फैसला ले सकते हैं.
वह दौर अब गया जिस में पिता यह तय करता था कि बेटे को क्या बनना है. शिक्षा और कैरियर के लिए बेटे की इच्छा, राय या इट्रैस्ट के कोई माने नहीं होते थे. हाईस्कूल तक आते आते उसे हुक्म सुना दिया जाता था कि तुम्हें यह या वह बनना है. बेटा भी श्रवण कुमार की तरह तनमनधन से इस हुक्म की तामील में लग जाता था फिर चाहे कामयाब हो या न हो और अकसर उस के हाथ असफलता ही लगती थी.
अगर ऐसा नहीं होता तो देश डाक्टरों, इंजीनियरों (आजकल सरीखे नहीं) और आईएएस अफसरों से भरा पड़ा होता, जबकि सरकारी नौकरियों में क्लर्कों, पटवारियों और शिक्षकों की भरमार है. ये ही अतीत के वे लाड़ले हैं जिन का कैरियर पिताओं ने तय किया था. भोपाल के वल्लभभवन के एक सरकारी महकमे में कार्यरत एक क्लर्क दिनेश सक्सेना की मानें तो उन के शिक्षक पिता की बड़ी इच्छा थी कि मैं डाक्टर बनूं, जिस से समाज और रिश्तेदारी में उन का नाम ऊंचा हो और वे फन से कह सकें कि देखो, मेरा बेटा डाक्टर है.
अक्स देखता पिता
उस दौर के दूसरे पुत्रों की तरह दिनेश ने दिनरात मेहनत की लेकिन हर बार प्री मैडिकल टैस्ट में नाकाम होते गए. 3 अटैम्प्ट के बाद जब उन्हें और पिता को यह ज्ञान प्राप्त हो गया कि इन से न हो सकेगा तो झख मार कर क्लर्की कर ली. वह भी यों ही बैठेबिठाए नहीं मिल गई बल्कि खूब एड़ियां रगड़नी पड़ीं और ग्रेजुएशन के बाद 3 साल पापड़ बेलने पड़े. अब दिनेश उन पिताओं की जमात में शामिल हैं जो विधाता की तरह अपने पुत्र की तकदीर नहीं लिख रहे. खुद बेटे ने ही कंप्यूटर इंजीनियरिंग से बीटैक किया और अब बेंगलुरु की एक सौफ्टवेयर कंपनी में 18 लाख रुपए सालाना के पैकेज पर नौकरी कर रहा है.
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