महाराष्ट्र चुनाव से एक दिन पहले और एक दिन बाद, दो दिनों तक तेजी देखी गई जिसे विदेशी संस्थागत निवेशकों (एफआईआई) को अपनी बिकवाली फिर से शुरू करने के बेहतर मौके के तौर पर देखा गया। हालांकि ऐसी हर बिकवाली की लहर के साथ कुछ खरीदारी भी होगी लेकिन तेजी का उत्साह गायब है। वर्ष के अंत में दिखने वाली पारंपरिक तेजी की उम्मीद अभी बाकी है खासतौर पर तब जब पिछले दो महीने निराशाजनक रहे हैं। लेकिन निफ्टी की चाल के पीछे बाजार का एक और दिलचस्प पहलू है। 27 सितंबर से 29 नवंबर के बीच, निफ्टी 8 फीसदी गिर गया। हैरानी की बात यह है कि निफ्टी और बीएसई स्मॉलकैप सूचकांक केवल 3 प्रतिशत गिरे तथा निफ्टी माइक्रोकैप में केवल 2 प्रतिशत की गिरावट आई। यह असामान्य है।
तेजी के बाजार में, छोटी कंपनियां आमतौर पर अपने क्षेत्र की बड़ी कंपनियों की तुलना में बेहतर प्रदर्शन करती हैं। लेकिन मंदी में, छोटी कंपनियों को आमतौर पर ज्यादा नुकसान का खामियाजा भुगतना पड़ता है। लेकिन इस बार ऐसा नहीं है। इस असंगति से क्या संदेश मिलता है? निवेशक एक खास वजह से छोटी कंपनियों को लेकर आशावादी हैं। पिछले चार वर्षों में भारत की वृद्धि में छोटी और कुशल कंपनियों ने अहम भूमिका निभाई है जो हरित ऊर्जा, विद्युत उपकरण, रक्षा, स्वास्थ्य सेवा (अस्पताल और निदान), विभिन्न विनिर्माण क्षेत्रों, रेल सहित बुनियादी ढांचे, उपभोक्ता प्रौद्योगिकियों, खुदरा वित्तीय सेवाओं सहित संपत्ति प्रबंधन से जुड़ी हैं। इलेक्ट्रॉनिक विनिर्माण सेवाओं (ईएमएस), रिसाइक्लिंग, स्मार्ट मीटरिंग और डेटा केंद्र जैसे नए उभरते क्षेत्रों में छोटी कंपनियों का दबदबा है।
इन तेजी से बढ़ते हुए क्षेत्रों का (जिनमें छोटी कंपनियां हावी हैं) प्रतिनिधित्व, किसी भी तरह से सूचकांक में नहीं दिखता है, सिवाय लार्सन ऐंड टुब्रो जैसी एक कंपनी के जो आश्चर्यजनक तरीके से सुस्त प्रदर्शन कर रही है। निफ्टी और सेंसेक्स में बड़े बैंक (स्थिर लेकिन वृद्धि नहीं है), उपभोक्ता कंपनियां (वृद्धि नहीं हो रही है), सॉफ्टवेयर कंपनियां (एकल अंकों में औसत वृद्धि) और जिंस कंपनियां शामिल हैं, जिनमें से कुछ सार्वजनिक क्षेत्र की हैं। ये सभी क्षेत्र सुस्त मांग की प्रतिकूल परिस्थितियों से जूझ रहे हैं।
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