अधिकतर लोग मानते हैं कि आर्थिक वृद्धि होना तय है, यह होती रहती है और लंबे समय तक जारी रहती है। यह धारणा अमेरिका और यूनाइटेड किंगडम जैसे देशों के अनुभवों पर आधारित है। इन देशों में लंबे समय तक कम औसत वृद्धि दर देखी गई है, जो स्थिर बनी रही है। वे संचय की शक्ति से वहां तक पहुंचे। 1820 से 200 वर्षों तक 1.5 फीसदी प्रति व्यक्ति वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) वृद्धि ने उन्हें करीब 20 गुना बढ़ा दिया। इस दीर्घकालिक औसत के साथ उतार-चढ़ाव के दौर भी आए। विश्व युद्ध हुए, मंदी आई और महामंदी भी झेलनी पड़ी। अमेरिका और यूनाइटेड किंगडम जैसे देशों की बौद्धिक एवं संस्थागत क्षमताएं इन चुनौतियों से निपटने, सामाजिक सौहार्द बरकरार रखने और लोगों के लिए सुरक्षा तथा आशावाद का माहौल बनाने में कामयाब रहीं। उनकी वजह से तमाम चुनौतियों के बीच भी कम स्थिर वृद्धि बरकरार रही।
भारत में हममें से कई लोग आसानी से इस भ्रम में फंस सकते हैं कि दीर्घकालिक स्थिर वृद्धि दर तैयार होती है और उसके इर्दगिर्द कारोबारी उतार-चढ़ाव नजर आते हैं। लेकिन अल्पविकास ऐसे काम नहीं करता। विकास की वृहद आर्थिकी खरगोश से मेल खाती है, कछुए से नहीं। भारत की बात करें तो ऐसे स्पष्ट दौर आए हैं जिन्होंने हमें अपने विचार बनाने में मदद की है। सबसे पहले 1947 से 1962 तक 15 वर्ष में हमने अच्छी वृद्धि की। औपनिवेशिक दमन से हमें राहत मिली। राजनीतिक और अफसरशाही नेतृत्व भी उच्चस्तरीय था। देश के समाजवाद का दमनकारी तंत्र शुरू नहीं हुआ था और 1757 से 1947 तक के दौर की तुलना में वृद्धि तेज हुई थी।
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