कोर्ट के समक्ष कोर्ट के आदेशों या फैसलों को इंटरनेट पर अपलोड करने के खिलाफ 'निजी जानकारी इंटरनेट से हटाए जाने का अधिकार' को लागू करने की मांग करने वाली याचिकाएं दायर की गई थी। इन याचिकाओं से निपटते हुए हाईकोर्ट ने कहा कि कोर्ट रूम सभी के लिए खुला है। कोर्ट हमारे संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (ए) के तहत निर्णयों के प्रकाशकों को उपलब्ध सुरक्षा की अनदेखी नहीं कर सकता है। निर्णयों की रिपोर्टिंग और प्रकाशन बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हिस्सा हैं और इसे हल्के में नहीं लिया जा सकता है। कोर्ट ने कहा कि जनता के विश्वास के आधार पर न्यायपालिका की पहचान आम तौर पर न्यायिक कामकाज पर सूचना के आदान-प्रदान के बिना संभव नहीं है। कोर्ट ने कहा कि अक्सर मीडिया अदालत की कार्यवाही के मिनट-दर-मिनट विवरण के साथ ब्रेकिंग न्यूज की सुर्खियां बनाता है, जिसमें जज ने ऐसे मामलों में कार्यवाही के दौरान क्या कहा, जहां एक सार्वजनिक हस्ती शामिल है।
हाई कोर्ट ने कहा, 'कोर्ट रूम को जनता को अपने कामकाज के बारे में राय बनाने का अवसर देना चाहिए। जनता के विश्वास को बनाने में यह सबसे महत्वपूर्ण विचार है।' अदालत ने स्पष्ट किया कि यह जरूरी नहीं है कि 'X' या 'Y' के मामले का विवरण जो एक सामान्य व्यक्ति जानना चाहता है, लेकिन यह जानकारी है कि अदालत में उनके मामले का फैसला कैसे किया जाता है। हाईकोर्ट ने कहा, 'अदालती कार्यवाही में बहुत कम जिज्ञासा दिखाई गई हो सकती है, अदालतें इस तरह की जानकारी को सार्वजनिक क्षेत्र में आने से इनकार करने के इच्छुक लोगों की संख्या पर भरोसा नहीं कर सकती हैं। सार्वजनिक क्षेत्र की भावना को जनता के बीच आने वाले निर्णयों की अनुमति देने में कोर्ट का मार्गदर्शन करना चाहिए।' पीठ ने यह भी कहा कि सीपीसी की धारा 153 - बी और सीआरपीसी की धारा 327 के तहत अदालतों को वैधानिक रूप से सार्वजनिक क्षेत्र बनाएं जहां लोगों को कार्यवाही देखने और जनमत बनाने की अनुमति हो।
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