हिंदू विवाह संस्कार है, न कि सामाजिक अनुबंध, जहां एक साथी बिना किसी कारण या उचित कारण या मौजूदा या वैध परिस्थिति दूसरे साथी को त्याग देता है, ऐसा आचरण और संस्कार अपनी आत्मा और भावना खो देता है। हालांकि यह अपने बाहरी रूप और शरीर को बनाए रख सकता है। इस प्रकार किसी तीसरे पक्ष को रूप दिखाई दे सकता है और वे विवाह को अस्तित्व में देखना जारी रख सकते हैं, जबकि जीवनसाथी के लिए संस्कार मृत रह सकता है। हिंदू विवाह की आत्मा और भावना की मृत्यु जीवनसाथी के प्रति क्रूरता हो सकती है, जो इस प्रकार न केवल शारीरिक रूप से वंचित रह सकता है, बल्कि मानवीय अस्तित्व के सभी स्तरों पर अपने जीवनसाथी की संगति से पूरी तरह वंचित हो सकता है।
दोनों पक्षकारों की शादी 1989 में हुई और 1991 में बच्चे का जन्म हुआ। शुरुआत में दोनों पक्ष शादी के कुछ साल बाद अलग हो गए। हालांकि, कुछ समय के लिए फिर से साथ रहने लगे और फिर 1999 में फिर से अलग हो गए। दूसरे समझौते के अनुसार, दोनों पक्ष फिर से साथ रहने लगे। हालांकि, वे आखिरकार 2001 में अलग हो गए और तब से अलग-अलग रह रहे हैं। पत्नी ने फैमिली कोर्ट के तलाक दिए जाने के निर्णय खिलाफ हाईकोर्ट में अपील प्रस्तुत की।
कोर्ट ने पाया कि दोनों पक्षों के बीच शादी संबंध ठीक नहीं थे क्योंकि दोनों पक्षकारों ने एक-दूसरे के खिलाफकई तरह के आरोप और प्रत्यारोप लगाए, जिसमें पति द्वारा पत्ती के खिलाफ क्रूरता का आरोप भी शामिल है।
पति द्वारा यह आरोप लगाया गया कि पत्ती के क्रूर व्यवहार के कारण उसकी मां ने आत्महत्या कर ली। कोर्ट ने पाया कि दोनों पक्ष आत्महत्या के बाद अलग हो गए और 23 साल से अलग रह रहे हैं।
कोर्ट ने कहा, लंबे समय से खराब संबंधों के संदर्भ में इस विलंबित चरण में उनके वैवाहिक संबंधों को पुनर्जीवित करने की कोई गुंजाइश नहीं है।
इसके अलावा, न्यायालय ने अपीलकर्ता पती के खिलाफ क्रूरता के आरोपों को बरकरार रखा, क्योंकि उसने बिना किसी उचित कारण के अपने वैवाहिक घर को छोड़ दिया था और प्रतिवादी-पति द्वारा सर्वोत्तम प्रयासों के बावजूद, उसने वापस आने से इनकार किया था। यह देखा गया कि दहेज की मांग और घरेलू हिंसा के आरोपों के लिए स्थापित मामला फैमिली कोर्ट के समक्ष साबित नहीं हुआ।
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