हिंदुस्तानी फिल्म संगीत में गायक कुंदनलाल सहगल के बाद आई पीढ़ी के नवरत्न लता मंगेशकर, आशा भोसले, गीता दत्त, हेमंत कुमार, तलत महमूद, मोहम्मद रफी, मुकेश, किशोर कुमार, मन्ना डे थे। उनमें किसी की भी गायन शैली दूसरे से नहीं मिलती थी। सबका अपना अंदाज था। उनमें अकेले रफी साहब के पास रेंज और मॉड्युलेशन की ऐसी क्षमता थी कि वे किसी भी मूड का गाना आसानी से गा और निभा लेते थे। रफी सभी रेंज के गाने आसानी से गा सकते थे। रफी की खासियत थी कि वे लय बहुत जल्दी पकड़ लेते थे। संगीतकार उन्हें गाना सुनाते और रफी साहब फौरन गाने का मूड भांप लेते। उन्हें रिकॉर्डिंग में भी बहुत वक्त नहीं लगता था। फिल्म निर्माता इस गुण को बहुत पसंद करते हैं। इससे समय बचता है और समय की बचत ही पैसे की बचत है।
रफी की यह विशेषता थी कि वे अलग-अलग अभिनेताओं के लिए अलहदा अंदाज में गा सकते थे। किन्हीं दो अभिनेताओं पर उनके गायन का अंदाज एक जैसा नहीं होता था। दिलीप कुमार के लिए गाये गीत सुनिए तो वह शम्मी कपूर के लिए गाये गीतों से बिल्कुल जुदा मिलेंगे। यही रफी साहब का जादू था । रफी चाहे फिल्म के मुख्य अभिनेता के लिए गीत गाएं या फिर चरित्र अभिनेता के लिए, उनका समर्पण शत-प्रतिशत रहता था। चाहे आप धर्मेंद्र पर फिल्माए गीत सुनें या जॉनी वॉकर पर, आपको दोनों गीतों में उनकी दक्षता दिखाई देगी। लंबे समय तक हिंदी फिल्म संगीत में सार्थक बने रहने के पीछे रफी साहब का यह गुण उनके बहुत काम आया।
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