श्रावस्ती बौद्ध व जैन दोनों का तीर्थ स्थान भी है. तथागत दीर्घकाल तक श्रावस्ती में रहे थे. यहां के श्रेष्ठी अनाथपिण्डिक ने असंख्य स्वर्ण मुद्राएं व्यय करके भगवान बुद्ध के लिए जेतवन बिहार बनवाया था. अब यहां अनेक बौद्ध धर्मशालाएं, मठ और मंदिर हैं. यह बुद्धकालीन नगर था जिसके भग्नावशेष राप्ती नदी के दक्षिणी किनारे पर फैले हुए हैं. इन भग्नावशेषों की पुरातात्विक जांच साल 1862-63 में जनरल कनिंघम ने की. इन भग्नावशेषों में दो स्तूप हैं जिनमें से बड़ा महेत तथा छोटा सहेत नाम से विख्यात है. इनके अतिरिक्त अनेक मंदिरों और भवनों के भग्नावशेष भी यहां मिले हैं.
साहित्य में श्रावस्ती का वर्णन
खुदाई के दौरान अनेक दीवारों पर उकेरी गई और पक्की मिट्टी की मूर्तियां प्राप्त हुईं हैं, जो नमूने के रूप में राजकीय संग्रहालय (लखनऊ) में रखी गयी हैं. यहां 1119 और 1219 ई० का शिलालेख मिला है, जिससे पता चलता है कि बौद्ध धर्म इस काल में भी प्रचलित था. बौद्ध काल के साहित्य में श्रावस्ती का वर्णन अनेक बार आया है और भगवान बुद्ध ने यहां के जेतवन में अनेक चातुर्मास व्यतीत किए थे. जैन धर्म के प्रवर्तक महावीर ने भी श्रावस्ती में विहार किया था.
चीनी यात्री फाहियान 5वीं सदी ई. में भारत आया था. उस समय श्रावस्ती में लगभग 200 परिवार रहते थे. 7वीं सदी में जब हुएन सियांग भारत आए, उस समय तक यह नगर नष्ट हो चुका था. सहेत-महेत पर अंकित लेख से उस समय की तमाम बातें सामने आती हैं. मूर्ति के लेख के आधार पर सहेत को जेतवन माना गया, जिसमें भगवान बुद्ध निवास करते थे. महेत की अनेक बार खुदाई की गयी और वहां से महत्त्वपूर्ण सामग्री प्राप्त हुई, जो उसे श्रावस्ती नगर साबित करती है.
श्रावस्ती की पहचान
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